एहसास
एहसास


मेरे सामने से गुज़रती है,
मगर मुझसे नज़रें चुराती है।
मैं कैसे अब उसे अपना कहूं,
मुझे वो बिल्कुल नहीं सताती है।
उसकी नज़रों में बस इतनी ही कीमत है मेरी,
परिचय में भी मुझे गैर बताती है।
मेरी खुशियों के हर लम्हे में शामिल थी वो,
अपने वज़ू से भी अब मुझे दूर हटाती है।
मेरा अपना होता तो जान जाता नादानियां मेरी,
अफ़सोस मेरी समझदारी पर मुस्कुराती है।
और क्या लिखूं इस रिश्ते पर "एहसास"
मेरी बातों को तिल का ताड़ बनाती है।