सब ठीक है माँ
सब ठीक है माँ
माँ और मैं साथ नहीं रहते।
बस फोन पर ही बात होती है।
हर रोज़ एक सवाल दागा जाता है,
सब ठीक तो है?
'हाँ, सब ठीक है।'
वही घिसा-पिटा जवाब,
जिसे दोहरा-दोहरा कर मैं थक गया हूँ।
कुछ ठीक नहीं है माँ,
मैं परेशान हूँ, बहुत परेशान।
मैं चीखना चाहता हूँ,
सर पटकना चाहता हूँ,
गुस्सा करना चाहता हूँ,
झल्लाना चाहता हूँ,
चिढ़चिढ़ाना चाहता हूँ,
डर कर तुम्हारा हाथ पकड़ना चाहता हूँ।
सोते हुए तुम्हारे पेट पर अपना हाथ रखना चाहता हूँ।
तुम्हें महसूस करना चाहता हूँ।
मैं चाहता हूँ,
रात को लघुशंका जाने के लिए तुम्हें उठा सकूँ
क्योंकि पलँग से उठ कर बरामदे तक जाने में
मुझे आज भी डर लगता है।
मैं चाहता हूँ कि नींद आए तो तुम्हें खोजूँ
क्योंकि तुम्हारे बगल में लेटे बिना मैं सो नहीं पाऊँगा।
मुझे डर जो लगता है।
मैं चाहता हूँ कि नखरे दिखा सकूँ।
मैं चाहता हूँ कि ज़िद कर सकूँ।
मैं चाहता हूँ कि तुम्हें पैसे दूँ और भूल जाऊँ।
क्योंकि बचपन में एक-एक पाई का हिसाब रखा था मैंने।
जो भी पैसे मिलते तुम्हें दे तो देता
पर वापस मांग लेता हर एक रुपया,
>बिना ये समझे कि तुमने खर्च किए होंगे तो मुझ पर ही।
मैं कितना मूर्ख हूँ?
कभी समझ ही नहीं सका तुम्हारा प्यार,
समझ ही नहीं पाया,
तुम्हारा गुस्सा मेरे भले के लिए है।
सुन सकता तुम्हारी बातें
तो आज परेशान न होता।
मान लेता तुम्हारा कहना तो
यूँ रात-रात भर रोता नहीं।
तुमसे किया वादा,
तोड़ने से पहले
एक बार सोचा होता
तो खुश होता मैं।
जैसे खुश था बचपन में
अपनी पूरी मासूमियत के साथ,
सच्चाई के साथ,
अपने भोलेपन के साथ।
अब न कुछ सच है न झूठ।
न कुछ सही, न ग़लत।
कभी कुछ लिख लेने के भ्रम ने
सही ग़लत को नज़रिया बना दिया है।
अकेले रहने से उपजे अकेलेपन ने
समझदारी का लबादा उढ़ा दिया है।
मैं समझदार नहीं हूँ माँ,
बेवकूफ हूँ।
आज भी गलतियां करता हूँ
ये बात और है कि
गलतियां तुम्हें बताने लायक नहीं हैं
तुम डाँट कर मुझे माफ नहीं कर सकोगी।
तभी फोन पर नोटिफिकेशन आता है
और माँ की तस्वीर दिखाई देती है
याद आता है उनका चेहरा
जिसे देख कर बस यही कहा जाता है
'सब ठीक है! माँ।'