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Vidhi Mishra

Abstract Tragedy

4.5  

Vidhi Mishra

Abstract Tragedy

एहसास की बात

एहसास की बात

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बिन कहे कभी-कभी सब कुछ कह जाती हूँ मैं, 

अक्सर लबों पर ताले और नज़रों में

बहुत सारी कहानियों को रखती हूँ।

अल्फ़ाज़ मेरे कभी थम से जाते हैं,

कहीं किसी को चोट न पहुँचा दें,

थोड़ा सहम सा जाते हैं,

हर छोटी चीज़ का इतना खयाल रखते हैं ये,

आहत के डर से आहट करने से भी कतराते हैं।


अक्सर लोग कहते हैं तुम शांत क्यों हो? 

पर उन्हें क्या पता कि मन के उस वीरान समुद्र में

सैकड़ों भाव और विचार आपस में लड़-झगड़ कर,

कभी-कभी साथ में भी गोते लगाकर

एक मुकाम तक पहुँचने की कोशिश में जुटे हैं,

क्या पता उन्हें की कभी-कभी हर लम्हे में खुद से ही जंग लड़ती हूँ मैं,

दूसरों के ग़म दूर करते-करते खुद को ही ज़ख़्म दे जाती हूँ, 

इन भावनाओं के भँवर में, खुद को अकेले ही जूझता पाती हूँ मैं।

कह तो नहीं पाती कुछ बस मुस्कुरा कर टाल देती हूँ,

क्योंकि मेरी मुस्कुराहटें मेरे ज़ख्म छुपाने की नाकाम कोशिशें हैं

ये कभी पहचान ही नहीं पाते हैं लोग।


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