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Vikram Vishwakarma

Abstract

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Vikram Vishwakarma

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दशरथ व्यथा

दशरथ व्यथा

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बाण शत्रु के नहीं वे थे प्रिया के

जो अबाधित जा लगे मेरे हृदय में,

अन्यथा वह बल कहां किसमें भला जो

डिगा पाए वह मुझे किंचित समर से।


याद आती स्वर्ग की संग्राम भूमि से पराजित 

हो पतित सब देवसेना जब खदेड़ी जा रही थी 

असुर खल खल हस रहा था गरजता हुंकारता था 


शांबरी माया सभी को त्रास दी ही जा रही थी 

तभी संकटग्रस्त सुरपति ने स्वयं होकर पुकारा 

मुझे और भोपाल दिहोदास को देव दल को बल मिले इस भावना से 

मैं चला संग ले कैकई को करने महासंग्राम को 


सारथी बनकर प्रिया ने चपलता से रथ नचाया 

खूब आया रंग उस संग्राम को कोमल कलाई डालकर टूटी

धुरी में शत्रु के शस्त्रास्त्र से उसने बचाए थे मेरे भी प्राण को

तभी मैंने क्रुद्ध होकर रूद्र को करके स्मरण भीषण बनाया और उस संग्राम को


शांबरी माया मिटाई असुर को यमलोक भेजा और मैं लौटा

यशस्वी हो विजित निजधाम को दे दिए मैंने प्रिया को तीन इच्छित वर खुशी से 

एक वर में ही बनी वह तो मेरी वामांगिनी 

दो वचन के विषय में ऐसा कभी सोचा न था 


कि इन्हीं से टूटेगी एक दिन डोर मेरे प्राण की 

आज भूमि पर पड़ा मैं श्वास अंतिम गिन रहा हूं 

यह नहीं परिणाम मेरे प्रबल शत्रु प्रताप का 

कुछ प्रिया का हठ बना है शस्त्र मेरे काल का 


और कुछ परिणाम है यह अंध जन के शाप का 

हाय अपने राम को ही दे दिया वनवास मैंने 

जानता हूं देख पाऊंगा नहीं अब राम को 

राम की ही विरह अग्नि में तपा मैं राम को ही

हृदय में धारण किए अब जा रहा सुरधाम को... 


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