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Vikram Vishwakarma

Inspirational

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Vikram Vishwakarma

Inspirational

कलंकित

कलंकित

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तुम कहते हो वह भाग गई,

बोलो कैसे यह मानू मैं?

जो सदा छुपाया तुम सब ने,

उस सच को कैसे जानु मैं??

गुड़िया सी सूरत वाली, परियों सी मुस्कान लिए,

पर भीतर रहती थीं वह ना जाने कितने तूफान लिए।

परी कहाती पापा की वह,

पर पापा क्या जान सके?

उसकी चुप्पी के रहस्य को वे भी ना पहचान सके।।


सदा कराया चुप उसको ही,

जब भी वह कुछ कहती थी।

कभी कभी वह सह पाती,

तो कभी कभी रो पड़ती थी।।

घर तो घर था लिए सभी के,

उसकी खातिर पिंजड़ा था।

उस चिड़िया के भाग्य गगन तो नहीं,

धरा भी सीमित था।।।


फिर उसने जो किया भला, अनुचित कैसे वह बोलो,

जाते उसने जो छोड़ा उस चिट्ठी को तो खोलो

हृदय उतारा होगा उसमें उसने कुछ शब्दों में,

पर तुम ना पढ़ पाओगे अपने झूठे ही मद में।।


तुम कहते हो उसे कलंकित,

कुल की इज्जत खा गई।

मिला दिया मिट्टी में सब कुछ,

घर पर विपत्त को ढा गई।।

थोड़ा तुम अभिमान त्यागते,

तो शायद ना जाती वह।

जो तुमसे वह कह ना पाई,

तो शायद कह पाती वह।।


थोड़ा निज विश्वास में लेकर स्नेह सुधा बरसाते तुम,

जितना देते अमृत उसको उससे दुगना पाते तुम।।

हम कैसे परिजन हैं उसके, झूठी बात बताते हैं,

खुद को रख के नेक साफ, सब उस पर दोष लगाते हैं।।

कैसे मानू अपने मन से, अपने घर से भाग गई,

घर से, घर ने ही भगा दिया इस कारण घर से भाग गई।।



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