दर्पण तू बता...
दर्पण तू बता...
दर्पण के समक्ष खड़ी
सवाल करती है
ये जो मुझ सा तुममे दिख रहा
आख़िर कौन है वो..??
वो जो ख़ुद से
इतना जता रही दुलार
क्या सचमुच
इतना चाहती है
वो ख़ुद को...?
गुम गए हैं काले घने केश
बिखरे उजड़े श्वेत केशों के पीछे
ये जो झुर्रियों के पीछे
कोई छुपा बैठा है वर्षों से
क्या मैं उसे जानती हूँ...
दर्पण तू जानता है
क्या उसे..?
तू बता
हर रोज वो आती है
क्या ऐसे ही..?
क्या पाया
क्या क्या खोया
कितना चाहा स्वयं को
दर्पण यूँ ना छुपा
तू जानता है उसे
दर्पण तू बता..?
