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Gurminder Chawla

Abstract Inspirational

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Gurminder Chawla

Abstract Inspirational

दर्पण ( कविता )

दर्पण ( कविता )

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मैं सुंदर हूँ मैं स्त्री हूँ

अपनी उम्र से छोटी दिखती हूँ

रोज सबेरे अपने को निहारती

दर्पण देखकर खुश हो जाती।

भगवान ने मुझे क्या रूप दिया

दर्पण ने हू ब हू उसे उतार दिया।

मैं जानती हूँ दर्पण झूठ नहीं बोलता

तभी तो उसका अहसान मानती हूँ।

मैं कुरूप हूँ मैं दूसरी स्त्री हूँ

मतवाली हूँ पर काली हूँ।

श्रृंगार मैं बढ़ चढ़ कर करती

रोज सबेरे आशा में भगवान से प्रार्थना करती

फिर डर डरकर दर्पण की तरफ आगे को बढ़ती

अपने को बदसूरत देख माथा सुन्न हो जाता।

काश ! दर्पण मुझे भी सुन्दर दिखाता

एक दिन तो झूठ बोल जाता।


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