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chandraprabha kumar

Fantasy

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chandraprabha kumar

Fantasy

दिवा स्वप्न मेरा

दिवा स्वप्न मेरा

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समझा लिया था मैंने

अपने मन को

यादें भुला दीं थीं 

अपने में खोई थी। 


यह फिर तुम्हारा 

आह्वान कैसा

यह मेरे बारे में पूछना 

कैसा ?

क्यों न रहने देते हो 

एकाकी

क्यों मेरी यादों को

कुरेदते हो । 

क्यों नहीं भूल जाने देते,

 शुरू करुँ- सब कुछ नए सिरे से

बीता भुला दो

जो आए उसे गले लगा लूँ,

न कोई उलाहना 

न बीती बातें 

ज़िन्दगी एक सी 

बही जा रही है।


अपने सपनों में जी रही हूँ मैं 

बना रहे सपना 

खोई रहूँ कल्पना जगत् में

जैसा था सब बना रहे,

मेरे कल्पना का संसार

मेरे सपनों में बसा<

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जैसा मैंने चाहा था हुआ

कहॉं गमगीन हूँ मैं ?

अपने में खुश हूँ मैं

 सब कुछ है मेरे पास 

कहॉं कुछ कमी है ?

सब यथावत् है। 


क्या कोई अन्त है ख़ुशी का,

क्या सब कुछ भ्रमजाल नहीं है,

यदि मेरा भी कोई भ्रम है

कोई कल्पना है 

तो वह ही क्यों टूटे ?


चलते रहने दो,

जो जैसा है रहने दो

सब कुछ सुन्दर है 

सब कुछ सत्य है,

मन ही भरा भरा है

तो क्या चाहूँ और ?

चाहना भी क्या शेष है।


न कुछ चाहना है, 

न कुछ पाना है,

ज़िन्दगी चल रही है

अपनी गति से

बहने दो उसको

जैसी बहना है

बहे, ज़िन्दगी चलती रहे। 


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