ख़फ़ा ख़फ़ा सा है कोई मुझसे।
ख़फ़ा ख़फ़ा सा है कोई मुझसे।
वो मुझसे कुछ ख़फ़ा ख़फ़ा सा है,
उससे बातें जो नहीं कर पाती हूं,
पहले हर दुःख सुख बांटती थी उससे,
अब उसे देख भी नहीं पाती हूं,
मेरे हर सवाल का जवाब था वो कभी,
अब उसे कब देखूं, ये सवाल सुलझा नहीं पाती हूं,
पहले दिन का ढलना, शाम का होना और उसका दीदार होना,
ख़ुशी सी दे जाता था,
अब न दिन ढलने का इंतजार होता है,
न वो शामें है, ना उसका दीदार कर पाती हूं,
उसका नाराज़ होना भी जायज है,
उसे वक्त जो नहीं दे पाती हूं,
वो मुझसे कुछ ख़फ़ा ख़फ़ा सा है,
उससे बातें जो नहीं कर पाती हूं,
मेरा चांद मुझसे ख़फ़ा ख़फ़ा सा है,
उससे बातें जो नहीं कर पाती हूं।