इश्क की राजधानी
इश्क की राजधानी
तुझे खुद से फुर्सत नहीं, मुझे तुझसे फुर्सत नहीं
मसरूफियत के इस खेल को मैं ज़िंदगानी बना लूंगी....
अफवाहों के बाज़ार में इंतज़ार है तेरे आने का
राह तकते तेरी एक दिन दुश्मन खुद को खुद की मैं जानी बना लूंगी...
जब बेचैनियों को सब्र से सह नहीं पाऊंगी
तुझे अपने इश्क की राजधानी बना लूंगी
वक्त रहते दूर हो जाऊंगी तुझसे
राधा ना सही मीरा सी खुद को दीवानी बना लूंगी...
अश्क तेरे ज़मीं पर गिरने से पहले
निगाहें तेरी जाफ़रानी बना लूंगी...
घुलेगी चांदनी मेरी रूह की जिसमें
उस दरिया का तुझको मैं पानी बना लूंगी...
मालूम है मुझे तू नाज़ुक है बहुत, हर बला में तुझको बचा सकूं
चुनर में ऐसी धानी बना लूंगी...
तेरी तलाश में गुम रहती हूं मैं रात दिन
लगता है खुद को राह भूला सैलानी बना लूंगी...
लिपटा के अहसास लफ्ज़ों में
जो भाए तुझे वो कहानी बना लूंगी

