धुंध
धुंध


घोर आवरण में छाई है क्यों
अफरा तफरी मचाई है क्यों
पूस का माह बाहर ठंड बहुत है
तू देती बेवजह दंड बहुत है।
कभी श्वेत रंग की धोती सी लिपटी
तो कभी लगती कणों में गिरने
छू जाती है जब कभी हम को
थरथर ठंड लगे हर तन को।
क्यों बुराई लिए अपने अंदर तू
राहों को यूं बंद कर लेती है
डरता है राही चलने में तब
जब तू खुद चलने लगती है।
जिसे रहती मंजिल की चाहत
राह उसके कभी ना आना तू
मिलना हो जो सूरज से हमको
उससे पहले ही चली जाना तू।
सारा दिन तू फैली रहती है
लेकर गहराई में अपना डेरा
आलस दिलाती मुझे बहुत तू
जब जाती हो तब मेरा सवेरा।