धरती मातृ
धरती मातृ
न जाने कितनी सदियाँ बीत गई
एक युग से दूसरे युग में रीत गई
कितनी सभ्यता लुप्त हुई
माँ धरती के गर्भ ग्रह में सुप्त हुई।
आज भी उसी मोड़ पर
बड़ी नजाकत से
अपनी धूरी के चारों ओर
घूमती है धरती माता।
वहीं ताना - वहीं बाना
वहीं चौबीस घंटे समय का तराना
वही मटमैला तन-निश्चल मन
आँचल में दूर तक फैले
मधुर-मनोहर वन।
बेशकीमती खजाने की खान
ठोस आँचल में देती सभी को स्थान
छू भी न पाया किसी कोने को
अभिमानी, अभिमान।
मौन-खामोश
न गिला-शिकवा, न रोष
सागर को भरती अपने आगोश
असंख्य प्राणियों में जोश।
जीवन दात्री- अन्नदात्री
युगों-युगों की ज्ञात्री
जय धरती मातृ।