धरती की व्यथा-कथा
धरती की व्यथा-कथा
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धू-धू कर जलते जंगल,
सूने वन और बंजर धरती ।
काट-काट सब वृक्षों को,
सूनी कर दी माँ की गोदी।।
तार-तार धरती का आँचल,
छलनी कर दिया सीना ।
प्राण वायु और पानी के बिन,
हो जाये अब अंत कहीं ना ।।
जीव-जन्तु कर रहे पुकार,
मचा हुआ है हाहाकार ।
इंसानों के कर्मों का फल,
भुगत रहे निरीह नादान।।
आखिर कब तक ये तरसेेेंगे,
जाने कब बादल बरसेंगे ।
धरती की तब प्यास बुझेगी,
सब मिल जब नयेे वृक्ष हम रोपेंगे।।
खिल उठे वसुधा का आँचल,
कण-कण में बिखरे मुुुस्कान।
आओ हम सब मिलकर बढ़़ायेें,
अपनी धरती माँ की शान।।