धरती कहे पुकार
धरती कहे पुकार
अपने सुख और वैभव की लालसा में,
वनों को हम सब ने मिल दिया उजाड़।
काटे पेड़ ताकि ऊंचे भवन हो सके तैयार,
भवन में आराम के लिए भरे फर्नीचर बेशुमार।
समाज के हर वर्ग में मची वैभव प्रदर्शन की होड़
पेड़ों को काटते गए,जिसकी खातिर मेहनत की पुरजोर।
भवन तो धरा पर भरे,खाली नहीं बचे भूखंड,
पेड़ पौधों की कमी से,गर्मी-सर्दी बढ़ रही प्रचंड
अपनी उन्नति दिखाने को मानव ने लगाए फैक्ट्री अनेक,
उत्पाद बाजार में बेचा, रसायनिक कूड़ा नदी में गिराया।
रासायनिक धुंआ से वातावरण को जहरीला बनाया,
करते रहे हम मानव मनमानी, धरती का ख्याल न आया।
आज जब जनसंख्या वृद्धि से हो रहा विस्फोट,
प्रकृति के व्यवहार से हमें महसूस हो रही चोट
प्रलय की घड़ी जब दिखाई दे रही आती पास,
हमें अपनी गलतियों का हो रहा है अहसास!
धरती कहे पुकार अब और मत करो अत्याचार,
नहीं तो इक दिन ऐसा आएगा, हो जाओगे तुम लाचार!
समय रहते बदल डालो अपना यह अप्राकृतिक व्यवहार,
खुशहाली तभी आएगी, मना पाओगे जीवन का त्योहार!
