धरा पर उतर परी
धरा पर उतर परी
मन मेरा आज उदास, धरा पर उतर परी,
इन खंडहरों की करुण कहानी सुना, अरी ।
कितनी ही बार बसी होगी, उजड़ी होगी,
इन अवशेषों से झांक रही है जो नगरी ।
छूकर आई जो हवा भग्न प्राचीरों को,
बुदबुदा रही, है सायं-सायं में आह भरी ।
मानवता यहां लुटी होगी, रोई होगी,
अंबर को चीर उठीं होंगी चीखें गहरी ।
कुछ लोग धर्म के ध्वज लेकर आ धमके हैं,
जनता में छाया मौन, जी रही डरी-डरी ।
वे उगल रहे हैं बोल लड़ाई-झगड़े के,
बतलाते खुद को शांति और सुख के प्रहरी ।
कह री, जाकर, धंधा इनका ध्वंसों का है,
मंडराई है फिर अंबर पर काली बदरी ।
