धरा,धारा,जननी
धरा,धारा,जननी
तुम बहुत सुंदर हो।
पानी के फुहार से
सौंधी सुगन्ध आती है
तपता है लाल अगर
भीषण गर्मी से
लेप तुम्हारा ही
शीतलता देता है
अपने भीतर तुमने
बहुत कुछ छुपा
रखा है हे जननी
गेंहू, चावल, दालें
सब्जी फलों के पेड़
तुम चीर देती हो
अपना सबकुछ
अपने लाल के लिये
काट दी जाती हो
बाँट दी जाती हो
गड्ढे भी करते हैं
कभी पाट दी भी
जाती हो तुम
खनिज़, ईंटे बालू
चुना, लौह स्वर्ण
सब देती हो निकाल
जब भी चाहे
माँ तुमसे ये लाल
तुम मूर्त रूप में भी
हो, तुम्हारे मल मूत्र से
जीवन की धड़कन पाई
बाद में पीयूष को पीकर
क्षुदा शान्त हुई थी
पलक अपलक
निहारती, नेरती तुम
मेरे इस जीवन को
चोट लगे नहीं
निरन्तर सोचती तुम
शब्द की शब्दवाली भी
कम पड़ जाती है
माँ,
तुम धन्य हो धरा हो
लिये असंख्य बोझ
इस जीवन मे
फ़िर भी बार बार
तुम
अवतरित होती हो
स्नेहिल भाव से
प्रतीक्षा में रहती हो
इस धरा की तरह
हमारा पोषण करने
माँ
तुम धन्य हो
और
यह धरा भी
