पतंग
पतंग
बड़ी मेहनत से वो
बांस की पतली , कोमल
सींक जैसी पतली लकड़ी से
कमानी बनाते हुये
स्नेह से दुलारते हुये
जीवन के सभी रंगों
के कागज़ पर
दुलार की गोंद लगा
बनाता है पतंग
वह चाहता है
उसकी बनाई पतंग
उड़े आकाश में
छु ले ऊंचाई
झोंक देता है
अपने परिश्रम से
कमाए जोड़े हुए
पाई पाई के फिरहरी
के डोर की तरह
कभी ढील, कभी कस
वह उड़ाता चला जाता है
पतंग
जिसे वह ऊंचाई देना चाहता है
चाहता है आकाश के हवा
की मौजूदगी में
स्वच्छंद उड़े उसकी बनाई पतंग
कभी कभी काल
डस लेता है उसकी आशाओं को
एक डोर काट देता है
उसके जीवन की
जमापूंजी को झटके में
पतंग का एक डोर
कर देता है नादानी और
काट देता है पतंग की डोर को
वह पतंग अब
असहाय हो जाती है
हवा के दबाव मे कभी ऊपर
कभी नीचे झोल खाते
लहराते विचरने लगती है
आकाश में
अब वह पतंग भी उससे
कहीं दूर ही है
जिसके मिलने से
कट गई थी डोर
पता नहीं
वह नीचे कहाँ गिरेगी
मचल रहे हैं कई हाथ
उसे छूने के लिये
उस पतंग का प्रारब्ध क्या होगा
यह तो उसे भी नहीं पता
क्या
वह हवा से दूर किसी नदी में
समा जाएगी , इन मचलते हाथों में
पकड़ी मसल दी जाएगी
कहीं कोई उसे
सबसे ऊंचा उठकर पकड़ लेगा
उसका सम्मान करेगा
बांध लेगा अपनी फिरहरी की डोर से
या किसी को ऐसे ही दे देगा
बेच देगा, बाँट देगा
ऐसा तो नहीं , पतंग
हवा के झोंके से
जा फँसेगी किसी
बबूल के सूखे टहनियों में
तीखे काँटों से तार तार हो जाएगी
और गिनेगी अपनी अंतिम साँसे
कहना कठिन है
और उसके अंतस को समझना
उससे भी मुश्किल है
पतंग जिसकी डोर अभी
कटी है, ऊंचाई से
ये पतंग किसी की बेटी
और
पतंग बनाने वाला पिता हो तो
समझना होगा दोनों को
अपने रिश्ते और उसके
त्याग, समर्पण और स्नेह को।