शक ना हो
शक ना हो
उदास हूँ क्योंकि कलयुग हो या सतयुग हो जाने क्यों
औरत का नसीब नही बदलता,
सतयुग में भी सीता ने दी थी अग्नि परीक्षा
कलयुग की नारी भी हर पल इम्तिहानो के दौर से गुजरे,
एक पल भी नही बीतता और नया इम्तिहान आ जाता आँखों के सामने,
कभी बेटी बनकर कभी बहन बनकर कभी बीवी बनकर
तो कभी माँ बनकर नारी इम्तिहानों के दौर से गुजर रही,
जीवन की राहों पर चलते चलते थक सी वो जाती है
फिर भी नही निकलती आवाज उसकी,
खामोशी से हर फ़र्ज़ अपने निभाती जा रही
घर और बाहर दोनो की जिम्मेदारियां खुशी खुशी निभा रही,
हो जाये वो कितनी भी पढ़ी लिखी अपने फ़र्ज़ निभाती खुशी खुशी,
सपने अपने भूलकर भी अपने फ़र्ज़ अपनो के प्रति निभा रही,
कोई शिकन नही उसके माथे पर कोई शिकवा शिकायत नही,
साल के 365 दिन उसके लिए है एक सम्मान,
ना ही कोई छुट्टी उसकी कामो से ना ही अपनी जिम्मेदारियों से,
हर पल हर घड़ी पिसती रहे अपनी जिम्मेदारियों में,
काश उसकी कुर्बानियो की मर्द तुझे भी कद्र हो,
औरत की महानता पर तुझको कभी कोई शक ना हो ।
