धारा और मेरी राहें
धारा और मेरी राहें
मैं उज्ज्वल, मैं उन्मुक्त
मैं अल्हड़, मैं बलखाती
फ़िक्र नहीं चट्टानों की
फ़िक्र नहीं बाधाओं की
बढ़ी वेग से आगे आगे
चली तेज़ से आगे आगे
जीवनकाल का ये पड़ाव
मुझमें लाया कुछ ख़ास
चाल मेरी हुई कुछ संजीदा
मैं चलूँ अब सिमटी लिपटी
कितनी वेदना संचित कर
हूँ मैं शांत, निर्मल और धीर
कितनो की पीड़ा को साधा
कितनो के पापों को नाशा
कोसों की दूरी को नापा
सोचों की पाटी को लाँघा
मिलने की तैयारी मेरी
हाथ खोल मैं चलती बढ़ी
अंततः मंज़िल को मैं मिली
सागर से मैं अब जा मिली
चित की वेदना और संवेदना
विश्राम ले अब ईश से मिली
इस शांति की चाह में मैं
मीलों तपी योजन चली