प्रश्न ?
प्रश्न ?
चीत्कार
पीड़ा भरी
गूँजे हर दिशा
आत्मा
निर्मल कोमल
कुचली रौंदी गई
लहू
सुर्ख़ लाल
फैला यहाँ वहाँ
अस्मिता
हरी गई
फिर आज यहाँ
चीथड़े
बिखेर पड़े
सफ़ेद आँचल के
सुनकर
नहीं सुनता
क्रंदन पुकार कोई
क्यों
नज़रें झुकाए
खड़े इन्तज़ार में
क्यों
बढ़ते नहीं
मज़बूत हाथ सामने
पूछती
हरेक बाला
अब समाज से
संग्राम
क्यों चाहते
मैं करूँ शुरू
क्यों
मैं बनूँ
फिर दुर्गा काली
संघारने
उन सभी
दैत्य रूपियों को
क्यों
भाती नहीं
करुणामई सीता तुम्हें
दायरा
सोच का
कब तुम बढ़ाओगे
सम्मान
मेरी तुम
कब कर पाओगे।