ड्योढ़ी
ड्योढ़ी
इस ड्योढ़ी के,
उस पार,
एक छोटी-सी खिड़की,
मैंने यूँ ही,
नहीं देखा है !
घंटो खड़े होकर,
उस डूबते सूरज को,
चमकते सितारों को,
कुछ तो बात थी,
उस खिड़की में !
यूँ ही नहीं,
महसूस किया है,
उन ठंडी हवाओं को,
बारिश की बौछारों को,
जो तन के साथ,
मन भी भिगों जाती थीं,
कुछ तो बात थी,
उस खिड़की में !
यूँ ही नहीं,
खिड़की के उस पार,
जाते थे तुम,
साईकल पर,
होकर सवार !
मैं टकटकी,
बांधे करती थी,
तुमसे नज़रे चार,
बैठी मैं उस छोटी-सी,
खिड़की के इस पार !