डर
डर
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मुझसे मेरी कलम डरी थी,
सभी किताबें मौन खड़ी थी।
अक्षर - अक्षर कांप उठा था,
आंखें उस छन जिसे पढ़ी थी।
मेरे हाथ लगाने भर से,
कोई पन्ना सुबक रहा था।
नन्हा, प्यारा, कोरा कागज,
अलमारी में दुबक रहा था ।
क्या मैं सपने देख रहा था ?
या फिर थी यह एक कहानी ?
सभी किताबें अलमारी की,
कल तक थी जानी पहचानी।
तभी डायरी आंखें खोली,
तड़पकर फिर वह बोली।
सब तो डरे हुए हैं तय है,
बस तेरे होने का भय है।
हमने तुमको दी आज़ादी,
मां, बेटी लिख दो शहजादी।
अपने सारे कोरे कागज,
हमने तेरे हाथ थमा दी।
बिना रहम के तुमने मेरे,
अरमानों में आग लगा दी।
ऐसा भी क्या दंभ दिखाना,
तूने खून की दाग लगा दी।
होठ भिंचो मत आंखे खोलो,
अपनी - अपनी नियत तोलो।
क्या तुम अब लायक हो मेरे,
तुम भी एक पुरुष हो बोलो।