ढीठ कौन मैं या स्याही?
ढीठ कौन मैं या स्याही?
कलम विद्रोह कर देती है
जब भी, तुम्हारा ज़िक्र होने को होता है
मेरी गज़लों में,अफसानों में, नगमों में, शेरों मे, कविताओं में, नज्मों में..
मानो अपनी स्याही को आदेश देती हो -
मत देना, एक रूप इस ढीठ, बागी कवि को
एक ही शख्स के इर्द-गिर्द घूमती चर्चाओं को..
मत बनना भागी उस रचना की..
जो रख दी जाएगी,बिल्कुल महफ़ूज
दुनिया की नज़रों से कोसों दूर, किसी कोने में...
'उसके' कभी ना खत्म होने वाले इंतज़ार में,
जो कभी नहीं पढ़ेगा कि -
आखिर क्यों इस ढीठ कवि ने सदैव 'उसकी' ही बातें की,
तमाम मुद्दों को त्याग कर..
कभी नहीं पढ़ेगा - तुम्हारे बलिदान को
फिर भी मैं उकेर देता सब अनकहा
और स्याही रूपी आत्मा भी कलम रूपी देह को छोड़ कर
अपने व्यर्थ हो जाने का चयन करती..
शायद उसे भी चाहत थी,
वो पढ़ी जाए...
एक शिद्दत से, एक लम्बे इंतज़ार के बाद
बिल्कुल मेरी तरह
और कलम..
कलम अपने अंत समय में सोचती रह जाती ...
ढीठ कौन है? "मैं" या स्याही!!