दैवी दुनिया बनाओ
दैवी दुनिया बनाओ
सारे संसार का खेल चमड़ी के पीछे ही चल रहा
इसके ही आकर्षण वश मानव खुद को छल रहा
भूल गया आत्म स्वरूप को बना देह का गुलाम
दिव्य गुणों का इसीलिए मिट चुका नाम निशान
ढेरों साधन बना रहा वो चमड़ी को चमकाने का
किन्तु काम भूल गया वो चरित्र को दमकाने का
चेहरे की झुर्रियाँ देखकर वो चिंतित हुआ जाता
लेकिन चरित्र का सिकुड़ना उसे नजर ना आता
चेहरे पर दिखते धब्बों का उपाय खोजता जाता
आत्मा पर लगे विकारों के वो दाग देख ना पाता
अपनी जाति ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र बतलाता
लेकिन चमड़ी के दास को चमार ही कहा जाता
ये चमड़ी की दासता ही बुद्धि में उत्पात मचाती
काम वासना जगाकर संसार में विकार फैलाती
चर्म की सुन्दरता के पीछे बुद्धि को नहीं भगाना
इस विकारी आकर्षण से खुद को मुक्ति दिलाना
चरित्र की सुन्दरता के प्रति अपना ध्यान लगाना
दिव्य गुणों को धारण करके गुण मूरत कहलाना
सर्व गुण सम्पन्न बनकर जीवन में समृद्धि लाना
चमारों की नगरी को फिर से दैवी दुनिया बनाना
*ॐ शांति*
