दायित्व
दायित्व
चली हैं आंधियाँ चमक धमक की
बचाएं कैसे जलते दियों को
गर्द ओ गुबार घर में घुसा हो
सींचे कैसे नवनिहलों को
फैली है दुष्कर्म की वासना
मान सम्मान कहीं खो गया
चल पड़ा है दुराचरण का आवरण
निपटाएँ कैसे पनपी आपदाओं को
फंस चुके हैं नई लालसाओं में
स्वार्थ सपनों में भी विद्यमान है
भूल चुके हैं पूर्वजों की नैतिकता
कौन रोके बड़ती खाई, दरारों को
बदल गई हैं प्राथमिकताएं
आजकल के परिजनों की
सोशल मीडिया चैन खा गया
क्या रुख दें नई परवाजों को
नई संस्कृति, बिगड़े विचार
बच्चों को कैसे निषिद्ध करें
विचारों में मत भेड़ बड़ गया
कौन अंत करें कुरीतियों को
होड़ लगी है दिखावट की
बच्चे भी फंसे हैं नए जाल में
क्या संस्कृति सवाल ना करेगी
क्यों न रोका इन सैलाबों को
सृष्टि इशारा कर रही है
हर पल हर क्षण नए तूफानों से
ए मानव तू बन अब मानव
न उजाड़ पनपते उद्यानों को
दायित्व तेरा है उस पीढ़ी पर
जिससे संसार में तुम लाए हो
देखो एक बार पलट कर
कहां छोड़ आए हो संस्कारों को
आधुनिकता कोई दुष्कर्म नहीं
पर लत कोई समाधान नहीं
धरोहर अपनी गर बचानी है
ढूंढ असली विकल्पों को
विचार विमर्श है एक विकल्प
इस पीढ़ी का मार्ग दर्शन करने का
कोमल कलियां गर सींचे ढंग से
समेट लेंगे बांहों में बहारों को
इस पीढ़ी को संवारना ही
है असल मायनों में नवीनता
मिलकर चलो पहले खुद बदले
बदल देंगे बिगड़े हालातों को.......
