दादाजी
दादाजी
चलते चलते रुकते रुकते,
अंतिम पल में झुकते झुकते
वो रोक रोक कर टोक टोक कर,
पाठ सत्य का सिखा रहे,
कल्पित दुनिया से दूर कहीं,
वो सच का साया दिखा रहे,
दादा जी इत्र भरी शीशी,
अनुभवों से जीवन महका रहे।
जीवन कैसे बीता उनका
पर्वत कब कितने लांघे हैं,
कब मोड़ा लहर कहां कितने,
कब बांध कहां पर बांधे हैं,
कितनी भूलें कैसे कर दीं
फिर से न हों यूं बता रहे,
दादा जी इत्र भरी शीशी
अनुभवों से जीवन महका रहे।।
रिश्ते कैसे जुड़ के टूटे,
कब रिश्ते टूटे जोड़े हैं,
कब पिरो मोती इक धागे में,
कब धागे कितने तोड़े हैं
मोती से मोती के रिश्ते,
वो धागे बन कर निभा रहे,
दादा जी इत्र भरी शीशी
अनुभवों से जीवन महका रहे।।
