चूल्हे की गाथा
चूल्हे की गाथा
चूल्हे की गाथा
हूँ मैं बस एक चूल्हा, पर सुनलो मेरी गाथा
समय बदलते मैं बंट गया, क्या कसूर था मेरा
पहले बड़ा सा कमरा, रसोईघर कहलाता
ईर्द गिर्द मेरे गृहणियां, गर्म खाना मैं खिलाता
एक रानी लकड़ी लाती, दूजी आग जलाती
तीजी हांडी सजाती, चौथी छोंक लगाती
छोटे बड़े कतार में, साथ मेरे बैठा करते
दिन भर हुई चर्चा से, माहौल वे खूब गर्माते
अतिथि जब जब आते, संग मेरे आसन जमाते
इधर उधर की बतियाते, मन मेरा भी बहलाते
समय बदलते बदला रूप मेरा, गैस स्टोव मैं कहलाया
रसोईघर घर का आकार बदला, पर एक जगह ही जलता
रानियां फिर आधुनिक हो गई, बदले में आई बाई जी
तड़के ही रोटियां पकने लगी, माइक्रो की गर्मी भाने लगी
नए हुए थे तौर तरीके, परिवार फिर भी थे इकट्ठे
भोजन बनते थे साँझे, थे ज़िंदा अभी अरमान मेरे
न जाने फिर कैसा निर्माण हुआ, विभाजन हुआ रसोई का
पहले एक जगह मैं जलता, अब हूँ कई जगह बिखरा
वह लकड़ियां खनकती चूड़ियाँ, तरह तरह की तरकारियां
छोटे बड़ों की किलकारियां, लकड़ी की वह चौकियां
गुम हुए सब विकास से, परिवार हिस्सों में हैं बंटे
सवाल कई जेहन में उतरे, क्या वाकई खुशी है इसमें
क्या खुशी नही थी साँझे में, क्या कमी थी इकठ्ठे रहने में
क्यों दुनिया लेती है मज़ें, अब बस तांकने झांकने में
अपनापन क्यों फिर गुम हुआ, माहौल भी है सूना पड़ा
सूनापन मुझे अखरता, पर कौन समझेगा दर्द मेरा
मेरा अस्तित्व लौटा दो, चाहे अलग अलग घरों में रहो
जीवित रखो भावनाओं को, आपस में प्यार करो दुलार करो
मिलते रहो जब जब मिले मौका, और बना दो रंगीन वह चौका
कोई चाय बनाए कोई खाना,"बाए" बोले जाते, बोलो फिर आना
विकास वहीं फलता है, जहाँ प्यार आचार पनपता है
खून अपना ही काम आता है, कठिन समय जब आता है।