चुप्पी
चुप्पी
चूप चूप सी थी जिंदगी,
वो ना हसती थी ,
ना जी भरके रोती थी,
गुम सुम सी रेहती थी !
हर रोज वही लमहा जिते थे ,
हर काम मनसे करते थे,
घर से ना निकले तो,
एकांत से पारेशान होते थे !
वही लमहा,वही सब
बार बार वोही पल जिते थे,
हसणा तो जैसे भूल ही गये थे,
निकलना था इससे मगर....
गुम थे हम अपने आप में,
ना वक्त था ना ठिकाणा,
जरुरत की ही बात करते थे हमें,
तुम मिले तो चुप्पी बोल उठी !
