चंचल सरिता
चंचल सरिता
चंचल अद्भुत शोक सरिता,
पर्वत मालाओं में जन्मी मैं,
निरंतर आगे बढ़ती अपने वेग से,
ना रूकी, ना झुकी, ना थमी मैं,
ना किसी पेड़, ना पर्वत,
ना पाषाण, रोक पाए मुझको।
अपना रास्ता खुद बनाती
उमंग, मोद आमोद से भरपूर।
खेत खलिहानों को सींचती,
प्यास बुझाती जन-जन की,
क्या मनुष्य, क्या धरती, क्या पशु-पक्षी।
कल कल बहता जल मेरा ,
मधुर संगीत के स्वर पर थिरकती।
कभी पहाड़, कभी जंगल ,कभी मैदान,
अपने तट पर बसा दी बस्तियां।
उपजाऊ कर देती भूमि को,
लहलहाती फसल उगती जब उस पर
मुस्काती मैं भी फसल के साथ
किसान की जीविका का
एकमात्र साधन बन जाती
जहां से गुजरूं हरियाली कर जाऊं
सबको जीवन देना मेरा एकमात्र उद्देश्य,
कभी नहर, कभी प्रवाहिनी ,
कभी तटनि, कभी शिप्रा,
यूं तो मेरे नाम अनेक।
खुशहाल करती समाज को,
देश की उन्नति को करती अग्रसर
मुझ पर कितने बांध बनाए
बिजली उत्पादन मेरे जल से
अर्पित करती बूंद-बूंद जल
पूजी जाती जगह-जगह
गंगा ,जमुना ,सरस्वती ,
कभी कावेरी, कभी महानदी।
बस एक मात्र लक्ष्य है मेरा
समुद्र में समा जाऊं
उसी के रूप में ढल जाऊं।
