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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

Abstract

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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

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चलता रहा

चलता रहा

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किस्मत के भरोसे चलता रहा

कभी अडा नहीं

कभी लडा नहीं

किसी को छेड़ा नहीं

छेड़ने पर छोड़ा नहीं


अनजानी डगर, डरा नहीं मगर

किस्मत के भरोसे चलता रहा

मोड़ का मोह छोड़

अनुभव का आनंद मनाता रहा

आंसू को मुस्कान से छुपाता रहा


जब भी जहाँ भी पाया खुद को

वहीं वैसा ही माना खुद को

तुमको खोजने मैं निकला

मिले तुम जब, मैं खो गया


किस्मत पर कुछ ऐसा भरोसा हुआ

किस्मत के भरोसे चलता रहा

तुम तुम ना रहे 

मैं मैं ना रहा

तुम भी मैं , मैं भी तुम

मैं तुम का भेद मिटते ही


अज्ञान का पर्दा हटते ही

तुम अपनी राह

मैं अपनी राह

एक ही रास्ते पर दो राही चले


एक ही मंजिल पर चले

एक अंतरगामी बन

एक बाहरगामी बन

अंतरगामी अनंतमय हो गया

बाहरगामी शाश्वत सत्य बन गया


किस्मत के भरोसे चलता रहा

उसके आगे पीछे कोई यात्रा नहीं।।


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