चल भाग! अभी बाकी है।
चल भाग! अभी बाकी है।


जब-जब बैठता हूं मैं कुछ भी लिखने,
लगता है मुझे सब सच साफ दिखने,
लिखते मन के सागर में गहरे जाता हूं,
कभी तो डूबता हूं तो कभी उतराता हूं।
कभी कुछ मिटाकर लिखता हूं,
तो कभी कुछ लिखकर मिटाता हूं,
कभी कभी बातें खुद से करता हूं,
कभी खुद को ही कुछ नया सुनाता हूं।
कभी तो लगता है चुक गया हूं,
कभी लगता है अब थक गया हूं,
सोचते इतना आगे निकल गया हूं,
कि इन तंग गलियों में भटक गया हूं।
पूछना है मुझे अपनी शख्सियत से,
कि मैं वही हूं या कुछ बदल गया हूं,
डर गया हूं तन्हाई में रहने की लत से,
या अपनी खामोशी से ही दहल गया हूं।
डर को दे ठोकर आगे पैर बढ़ाता हूं,
फिर लिखकर खुद को ही पढ़ाता हूं,
मन के घोड़े पर खुद को चढ़ाता हूं
सरपट उसको मैं फिर से दौड़ाता हूं।
कहने को सबसे, चल भाग, अभी बाकी है,
आग बहुत है अंदर मेरे ये तो बस झांकी है।