चित्र
चित्र


इन आंखों के बसा है
एक मोहक -सा चित्र तुम्हारा।
मानो कि वहां प्रत्यक्ष
है निवास तुम्हारा।
तुम्हीं हो विराजमान
इन पलकों के इस या उस पार
हटती न यह छवि तुम्हारी ,आंखों से।
देखती जिसे मैं बारंबार,
शयन हो अथवा जागरण।
तुम्हीं में होता विलीन
अस्तित्व मेरा
होकर तुम्हीं से शुरू।
लोग करते हैं तारीफ
बेबजह मेरी इन आंखों की,
क्या पता उन्हें कि
अगर खूबसूरत हैं ये
तो इसका कारण केवल यह
कि उनमें बसा है चित्र मेरे प्रीतम का।
तुम्हारी सुंदरता से सजकर ही
मोहमय हो उठते हैं मेरे नयन भी।