चिंतन-ऐसा गुज़रा साल
चिंतन-ऐसा गुज़रा साल
निशब्द सी हो जाती हूँ
कुछ ऐसा गुज़रा है ये साल,
शायद पहली बार एहसास किया
जीवन मरण की गणनाओं में...
सभी जीने के जुगत लगा रहे थे,
मुँह पर मास्क हाथ में सैनिटाइज़र
दिमाग में आंकड़े बैठा रहे थे;
क्या पाया इसका तो होश ही कहाँ
अपनों से ही दूरी बढ़ा रहे थे,
जीवन की रफ़्तार पर जैसे
जैसे लगाम ही लग गयी,
चकाचौंध ज़िन्दगी की
बंद दरवाज़ों में कैद हो गयी;
बस अब आनेवाले साल का
करो कोई ज़िक्र नहीं,
प्रभु ध्यान में लगो
करो कोई फ़िक्र नहीं,
क्यूँकि ये सब कुछ तय है
कि क्या होना है आगे,
छोड़ो सब ऊपर वाले पर
शायद अब अपने हाथ कुछ नहीं !