छिप जाएं नयन, शर्माए बदन..!
छिप जाएं नयन, शर्माए बदन..!
निकली वो पल्लू ओढ़कर
छिप जाए नयन, शर्माए बदन..
धूपों से बच बचकर
कलिका जैसी शर्माकर
वो किसी के यादों में खो जाएं
उसका है हिरनी का चलन
छिप जाएं नयन, शर्माए बदन..
आती वो हिलोर मारकर
फिज़ा की सांसे थम जाती
उनकी मस्त नयन
वो भी किसी के रंगीन शाम होती हैं।
आती वो हाथ मलकर
कूजा जैसा खिल उठना
उनकी सुंदर छवि दृश्य
सुनती नहीं वो किसी की बातें
आती वो गुनगुनाकर
थोड़ा लजाती और मुस्काती
उसे देखकर होता हैं
उसको पाने को मेरे मन में हलचल
कैसे लगाऊं उनकी सुंदर का आकलन
छिप जाएं नयन, शर्माए बदन..
कुछ बोलती भी नहीं हैं वो
लगता हैं मुझे, वो मगरुर हैं
पर मासूम सी लगती हैं वो
मैं इशारे क्या कर सकूं उसको
अपना मुखड़ा वो हटा लेती हैं
कैसे मिलाउं मैं अपना नयन
छिप जाएं नयन, शर्माए बदन..
कर्ण में कुण्डल हैं उनके
अति सुन्दर लगती हैं
छाया से बचने के लिए
मुखड़ा को ढक लेती हैं
थोड़ा वो ठहर जाती
बालों को संवारती
चुपचाप वो आती
किसी को नजर भी नहीं दिखाती वो
कैसे पाऊं उसको क्या बातें करूं
मग्न होता हैं मेरा दिल उसे देखकर
कुछ कहती नहीं नज़रे उनकी
कैसे देखूं उनको
वो बंद कर लेती हैं दिल के वातायन
छिप जाएं नयन, शर्माए बदन..

