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Usha R लेखन्या

Abstract

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Usha R लेखन्या

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चेहरा

चेहरा

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हर एक के ज़हन में है यही गहन गूढ़ता

जिसमें डूबता है कभी मन और कभी उबरता


वो है एक अगाध, अनिश्चल, अबोध सघनता

जिसे कोई कोई ही है स्वयं से निकालता


क्या वह एक वहम है जो ज़िन्दा है हम सब में

या है वह कोई रहम जो कर रहा है भ्रम हम में


ख़ुदग़र्ज बेरहम बेबाक वो करता है हम से ठिठोलियाँ

 रहता है हम पर हावी, जैसे कर रहा हो हम से आँखमिचौलियाँ


उसके शिकंजे से न छूट सका आज तक कोई

क्योंकि वही था हमारा दूसरा चेहरा जो नहीं था हमारा कोई


कर लें अगर इस पर पकड़, नहीं कर सकेगा वो हम पर सितम

ज़माने में हर किसी का है एक और चेहरा, जिसका नही कोई चरम


अन्धेरे में हमें जब वो दिखाई दे तो कर दें हम उसका अन्त

क्योंकि वही है हम सब की हर एक आपदा को रखने वाला अनन्त


लेकिन कोई चाहता है इसी में डूबना और कोई उबरना

जो कर गया इससे निष्कासन, उसका ही चलेगा उस पर शासन


हर एक के ज़हन में है यही गहन गूढ़ता

जिसमें डूबता है कभी मन और कभी उबरता।


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