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Anita Sharma

Abstract Classics

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Anita Sharma

Abstract Classics

चाँद-सूरज

चाँद-सूरज

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शाम ढलते ही हर तरफ

फीकी पड़ जाती है रंगत 

अजीब सा द्वंद लिए कालिमा

बिखरने लगती है आसपास

टिमटिमाती बूंदों की चादर

ढकने लगती है जैसे आकाश को


सींचने लगे हो असंख्यों तारे 

अद्भुत सी जान पड़ती है

पानी में प्रतिबिंबित चाँदनी

चाँद घटते बढ़ते,ताकता है कहीं

धुँधली सी रोशनी में डूबा घटाओं बीच

निकला हो जैसे उजियारा करने को


हज़ारों विरोधाभासों को जैसे,

संतुलित करने निकल पड़ा हो

पहल उसकी कि रोशन रहे जहाँ

अँधेरों के भय से दुबके नहीं कोई यहाँ

ये सोचते सोचते छँटने लगा अँधेरा

दबे पाँव सूरज ने किया जब बसेरा


धूमिल होते उस चाँद को

टकटकी सी लगाकर

मैं शून्य होकर देखती रह गयी

रंगों के बिखरते ही आसमाँ में

वो दूधिया रोशनी,न जाने कब

आँखों से ओझल हो गयी


पर हाँ वो चाँद जो जा रहा था

जाते जाते भी मंद-मंद

जैसे मुस्कुरा रहा था

जैसे नींद के आगोश को पाकर

वादा मुझसे करने लगा वो

कि अभी जाता हूँ मैं क्यूँकि 

अब सूरज को चमकना है,


मिलता हूँ ढलती शाम होने पर

आखिर अँधेरे में आकर

मुझे ही तो फिर दमकना है।


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