चाँद से बातें
चाँद से बातें
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श्वेत, अप्रतिम, सोम्य चांदनी बिखेरते हुआ चांद
लुका छुपी खेलता बादलों के बीच, असंख्य तारों के साथ,
ध्वल चांदनी तेरी, रात के अंधेरे को जगमगाती हुई
लपेटती हुई अपने सौंदर्य से संपूर्ण वसुंधरा को
कभी बिरह, वियोग मैं प्रियतमा को सांत्वना देता
कभी मां को उसके लाल की कुशल होने की दिलासा
कभी दादी-नानी की कहानी का आधार बनता
कवि नव-दंपति के प्रणय के क्षणों को यादगार बनाता
कभी किसी व्यथित को अपनी शीतलता से सुकून देता
कभी कोई प्रेमी ढूंढता अपनी प्रेमिका का अक्स तुझ में
तो कभी प्रेरणा स्रोत बनता कवि और शायरों का
जो तेरी खूबसूरती का बखान करते करते लिख जाते
कितनी नज्मं और ग़ज़ल
हर कोई निहारता तेरी सौंदर्य को अपलक
कभी शरद पूर्णिमा का,
कभी ईद का चांद, कभी करवा चौथ का
कभी अधूरा, तो कभी पूरा
निराकार चांद, रोशनदान से झांकता हुआ
आज कुछ समय निकालकर,
अपनी अठखेलियां छोड़ कर,
बैठ मेरे पास, मुझे भी तुझसे कहनी है अनकही।