चाँद और रात
चाँद और रात
चल तू चाँद ही सही
खुबसूरत बेशुमार...
मैं रात ही सही
काली बेहिसाब...
पर मै खिलूंं तो तू खिले,
मै ढ़लूँ तो तू ढल जाए...
मुझसे ही खिले तेरी काया
जैसे धूप मे ही बने साया !
बिन मेरे तेरा कोई वजुद नही,
फिर भी माँगा कभी कोई सूद नही...
जाने किस बात का है फिर तुझे अहम...?
माना कि हर कोई चाहे तेरा वरन ,
भूल मत पर रात तो खुद एक टीका है,
वो चाँद ही है जिसे लगता है ग्रहण...!