मेरी माॅं
मेरी माॅं
देखा है मैंने उसकी चोटी को जुड़ा बनते हुए,
मेरी खुशी के लिए कुड़ा तक छनते हुए।
कभी मेरी पिटाई करके खुद ही रोते हुए,
तो कभी बड़ी सी कुर्बानी देकर भी चैन से सोते हुए।
एक वही है जो मेरी एक मुस्कान के लिए
कुछ भी कर जाती है,
कभी खुद को खरीदके न दे पाऊं,
ऐसी खुशियाँ मुफ्त में दे देती है।
इतना बड़ा दिल जाने कहां से लाती है ?
"माॅं" है ना शायद बचपन से ही बड़ी होती है !