बूढ़ी भिखारन
बूढ़ी भिखारन
सड़क किनारे खड़ी वो औरत
बूढ़ी थी लाचार थी
झुकी कमर दुबला बदन
मुझे लगती वो बीमार थी
कभी बैठती कभी खड़ी हो जाती
कभी गुमसुम वो खो जाती
हर गुजरने वाले के आगे
हाथ फैलाती बार बार थी
लोग अनदेखा कर गुजरते जाते थे
किस कदर मायूस है वो
उसके चेहरे के भाव बताते थे
जब मैं गुजरा उसके करीब से
उसने देखा मेरी तरफ बड़ी उम्मीद से
फिर धीरे से कॅऺपकपाता हाथ आगे बढ़ाया
उसे अनदेखा कर मैं आगे बढ़ नहीं पाया
जेब से दस का नोट निकाल उसे थमाया
उसके चेहरे पे हल्की सी खुशी थी
मगर दिल की गहराइयों में
जाने कितनी पीड़ा छुपी थी
सोचते सोचते मैं आगे बढ़ गया
बुढ़ापे में उसकी दशा देख
दिल में तूफान उमड़ गया
कुछ वक़्त बाद जब मैं लौटा दोबारा
वो अब भी वही थी खड़ी
जैसे ही उसकी निगाह मुझ पर पड़ी
उसने फिर मेरी और हाथ बढ़ाया
शायद उसकी कमजोर नजरों ने
मुझे पहचाना ना था
याॅं फिर उसने मुझे चाहा आजमाना था
मैंने सोचा ना विचारा
जेब से दस का नोट निकाला दोबारा
उसे थमाया और अपनी राह चल पड़ा
मन विचलित था परेशान बड़ा
जाने कैसे वो करती होगी गुजारा
बुढ़ापे में बेबस बेसहारा
क्युं वक़्त ले आया था
उसे इस मोड़ पे
जाने कौन चला गया होगा
उसे इस अवस्था में छोड़ के
अब जब भी उस राह से गुजरता हूँ
उसी कोने की तरफ देखा करता हूँ
मगर अब मैंने कभी उसे वहाँ पाया नहीं
वक़्त कहाँ ले गया उसे
मैं कभी जान पाया नहीं
हाथ जोड़कर रूमिन्दर करता है दुआ
बुढ़ापे में किसी को कष्ट मिले ना खुदा।
