मैदान ए जंग
मैदान ए जंग
ख़ून से लथपथ कहीं धरा
गोलियों से छलनी कहीं जिस्म पड़ा
धमाकों से कहीं गर्द का गुब्बार उढ़ा
कितनी भयावह है रणभूमि
पूछो वीर जवानों से
बर्बादियां ही मिलती है जंग के मैदानों से
शहर सुनसान वीरान है
घर में दुबक कर बैठा हर इंसान हैं
भीड़ है कहीं तो वह श्मशान है
युद्ध की विनाशलीला पता चलती है
इन क्षतिग्रस्त मकानों से
बर्बादियां ही मिलती है जंग के मैदानों से
किसी ने पति किसी ने पुत्र हैं गंवाया
किसी के सर से उठ गया पिता का साया
युद्ध के प्रकोप से कोई बच ना पाया
खेल गया ये युद्ध ना जाने
कितनी मासूम जानों से
बर्बादियां ही मिलती है जंग के मैदानों से
नफरतों का तिरस्कार करके
दिल में अथाह प्यार भर के
इन्सानियत को मजहब स्वीकार करके
हर उलझन मिलकर सुलझा लें
शान्ति के समाधानों से
क्योंकि बर्बादियां ही मिलती है जंग के मैदानों से
