बुढ़ापा
बुढ़ापा


वक्त की उँगली पकड़ कर देख ली अनगिन व्यथायें
झुर्रियां लिखने लगी हैंआप बीती हर कथायें
हो गयी बूढी जवानी जिन्दगी भी लड़खड़ाती सांस चलती है
थकी सी राह अंतिम सी दिखाती सांवले रँग
रूप पर हैं श्वेत लट की व्यंजनायें
ज्योत मध्यम है दृगों की दिख रहा धुँधला जमाना
राम की माला करों में भक्ति का गाये तराना
नव कली नव पर्ण हँसते द्वार सुन वैदिक ऋचायें
आस का विश्वास टूटा धीर मन कैसे दिलायें
जो बची है उम्र अपनी वक्त गिन गिन कर बितायें
कुछ हँसायें कुछ रुलायें जिन्दगी सबकी सजायें।