मैं और मेरी रूह
मैं और मेरी रूह
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आज शब्द बेताब हैं,
कागज़ के स्पर्श को,
जो लफ्ज़ ख़ामोश हैं,
कहने अपनी व्यथा को !
जो हर बात मुझसे,
कह देती थी बेझिझक,
की आज मुझमें शायद,
कोई रूठ-सा गया है !
वो अल्फ़ाज़ आज,
मर्म ढूंढ नहीं पा रहे,
जता नहीं पा रहे,
ख़ामोशी की वजह !
वो जो जाग रही थी मुझमें,
इबादत बनकर,
अब सो रही है मुझमें,
रिवायत बनकर !
की मेरी रूह ही मुझसे,
खफा हो चली है,
मोहब्बत के जैसी,
बेवफ़ा हो चली है !
इस कश्मकश से खुद को,
सुलझाऊं कैसे,
जो समझ चुकी हूँ
खुद को समझाऊं कैसे !
की जैसे जीवन का एक किरदार,
छूट-सा गया है,
की जैसे आज मुझ में कोई,
टूट-सा गया है !