बुढ़ापे की सनक
बुढ़ापे की सनक
मत पूछ मेरे अरमानों की कश्ती कहां रुके।
रुके या ना रुके ,ये भी ना पूछ
अरमानों के महल सजाए,
कितने आंसू बहाये,
सालों तक तर्कं वितरक करते रहे,
जवानीं को अरमानों में पिरोते रहे,
कागज़ की कश्तियाँ कितनी बनीं,
कितनी तूफानों में डूबती रहीं।
बंद दरवाजों से कितनी कहानियां,
बाहर अंदर आती जाती रहीं।
दुनिया कुरेदती फिर खरोचती रही,
बरसों बरस की मेहनत को बटोर लिया,
कुछ ज़मीन को गिरवी भी रख दिया गया,
आज बेटे को विदा कर दिया,
विदेश के सपनों को उड़ान भर दी।
सितारों में छोड़ दिया।
अब कुछ सालों से ना
कोई ख़त,ना कोई डाकिया आया,
ना कोई संदेश,ना कोई अहसास हुआ,
अब अहमियत भी आख़िरी सांसे भर रही थीं,
बड़े रिश्ते में ऐतबार करते थक रही थीं,
मोजूगी का अलाम कुछ इस कदर था,
बूढ़े मां बाबूजी की आखिरीं सांस निकल रही थीं।
पड़ोसी भी अपने दिल में मलाल करते रहे।
बेटा पुकार आती दरवाज़े पर मां बुला आती।
दिल को दस्तक देकर फिर फुट फुट कर रोती रहती
डाकिए कि राह ताकते बेटे के लिए स्वेटर बुनती।
बस उस स्वेटर को सीने से लगा ये
उसी दरवाज़े पर नज़रे गड़ाए
अध खुली आंखे बस सन्न रह गईं।
बाबू जी ने आवाज़ लगाई,
पास आकर कुछ हिलाया,
पर यक़ीनन अब मां नहीं रही।
अब बेटा को तार भेजा,
मां के हाथों में वो स्वेटर उधड़ रहा था,
अभी भी गाले से लगाए हुए था
बेटे ने वो स्वेटर पहना और मां का एहसास लेने लगा,
कहां थी मां ,मां आवाज़ तो दो।
पर मां कहाँ थी?
अब बस देर तक उसके
चरणों को चूमता रहा,
पर मां कहाँ थी?
उसके हाथों को सहलाता रहा।
पर मां कहां थी?
सर पर हाथ फेरता रहा'
पर मां कहां थी?
बस पछतावा था'
पर मां कहां थी?
अब बाबू जी की गोदं में सर रख कर रोता रहा।
पर मां कहा थी?
अब बाबू जी की सेवा में यहीं का ही हो गया,
मां की याद में ओल्ड ऐज होम खोल दिया,
एक मां को खो कर हज़ारों मां की सेवा का मौका मिला।
अब आंगन में मां की मूरत को रोज़ दिया दिखाता,
आखिरी बार मां का आशीर्वाद नहीं मिला,
पर आज वो स्वेटर पहने घूमता है।
हज़ारों मां का आशीर्वाद लेता है।