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डॉ. रंजना वर्मा

Abstract

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डॉ. रंजना वर्मा

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बसन्त

बसन्त

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पतझड़ गया बसंत बांटता है सबको मुस्कान रे ।

कोकिल बैठा रूठ किनारे भूल गया क्या गान रे ।।


श्याम हृदय में बसी राधिका चपला गगन - गली, 

तिरछी चितवन वाली की लागे हर बात भली । 

किसी मोड़ पर प्रीत प्यार की जब भी बात चली, 

अनजाने ही सब के मन में फूटी कुसुम - कली ।


मन नवनीत ले गया कान्हा अब क्या लेगा जान रे ।

मैं तो मान गयी हूँ सब कुछ तू भी तो कुछ मान रे ।।


जाग रहे हैं धीरे धीरे कुछ  ऐसे एहसास - से, 

जैसे मृदुल हवा का झोंका गुजर गया हो पास से ।

कृष्ण कन्हैया जैसे अब कुछ ऊब रहा हो रास से,

पछताया ज्यों हृदय राम का सीता के वनवास से ।


रति से रूठे कामदेव ने है रख दिया कमान रे ।

चलते नहीं हाथ से अब तो उसके कुसुमित बान रे ।।


चुप हो गया पपीहा पी पी करके बहुत थका, 

लेकिन दिनकर का रथ चलते चलते नहीं रुका ।

भावी का जो क्षण आना था आया टल न सका, 

स्वाभिमान सम्मान किसी के आगे नहीं झुका ।


इसीलिए शायद सब उस को कहने लगे महान रे ।

चलता जाता समय बटोही कब करता अभिमान रे ।।


दूर क्षितिज के छोर कहीं पर आशा दीप बनी, 

फिर भी सदा निराशा से रहती है तनातनी।

आज सितारों की चूनर है ओढ़ खड़ी रजनी,

आंचल की झालर में चंदा जैसे स्वर्ग - कनी ।


आगत सपना जीवन का सबसे कितना अनजान रे ।

अपने रंगों से ही करता स्वयं जान पहचान रे ।।



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