बरस जाओ
बरस जाओ
तुम क्या जानो,
आसान नहीं
एक मौसम गुज़ारना तन्हा
देखो दरख़्त दिल के रिसते
नंगे पांव चल कर आती है
तुम तक मेरी सदाएँ
क्यूँ लौटकर नहीं आता
प्रतिसाद का मौसम..!
कह कर गए थे तुम
आओगे इस साल
कर्ज़ रहा तुम पर
मेरा एक
बरसाती मौसम उधार
इस देह की अंगीठी को
तरल तुम्हारी चाहत बुझाए..!
बोझ तो लगता होगा ना तुम्हें भी
तन से खाल की तरह लिपटी हूँ
तुम्हारे वजूद से एहसास बनकर
क्यूँ आकर उतार नहीं देते
एक मुस्कुराते मौसम का कर्ज़..!
प्यासी धरा की मौन मिट्टी को महका जाओ, बूँद बनकर बरस जाओ
मैं महक उठूँ मौसम की पहली बारिश में सराबोर नहाकर।।
