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Omdeep Verma

Abstract

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Omdeep Verma

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बरगद की छाँव

बरगद की छाँव

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बहुत याद आता है मुझे मेरा गाँव 

वह बरगद की छाँव

पूरे दिन जिसके नीचे खेलते थे 

सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम 

कभी शाखाओं से झुलते 

कभी ऊपर चढ़ते 

गिरते भी बहुत थे 

फिर भी ना डरते 

कौओं को तो कभी बैठने नहीं दिया 

बहुत सी चिड़ियों के घोंसलें भी उजाड़े थे 

नासमझ बचपन था 

प्रेमी जोड़ों के बनते काम भी बिगाड़े थे 

एक दूसरे के हाथ पकड़ कर 

उसके चारों तरफ घूमते थे 

एक आधा अधूरा गीत आता था 

जिसे गा-गा कर झुमते थे 

अब ना वह बचपन रहा 

ना वह बरगद 

मेरी जिंदगी तो बना दी उसकी छीन ली 

वक्त के भी क्या करतब 

जहाँ पर अब आलीशान इमारतें खड़ी है 

वहां उस बुड्ढे की बरगद की जड़ें दबी है 

वैसे तो आज सब कुछ है मेरे पास 

पर उसकी ठंडी छाँव कि आज भी कमी है।।


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