बोझ..!
बोझ..!
वो चले थे साथ सबको लेकर
आज अकेले रह गए
जिंदगी की भीड़ में न जाने क्यों
वो कहां अब खो गए।
थे वो परिवार की रीढ कभी
दौड़ते रहे जिंदगी भर
अपनों ने ही बिसरा दिया उन्हें
आज बोझ समझकर.!
दिलों में दबे रह गए उनके
जिंदगी के अनेकों हसीं हिस्से
इस भीड़ में भी वो अकेले हैं
आखिर बयां करें किससे अपने किस्से।
ना बातचीत करता कोई उनसे
ना हाल कोई उनका पूछता
खुद को तन्हा महसूस किया
खुद अपने लख्ते ए जिगरों से।
जिनके वो हकदार थे
ना पाया कभी उन्होंने
मिला तो बस अपनों से
सिर्फ उपेक्षा और तिरस्कार ही।
घर के कोने में पड़े रहते
कुछ उम्मीद और आरजू लिए
दो पल का साथ मिले
यहीं उनके जीने की दवा भी..!
घर और दिल में जगह
यहीं तो वो मांगते हैं
जिंदगी के आखिरी पड़ाव में
थोड़ी खुशी वो भी चाहते हैं।
जोड़ना चाहते हैं वो फिर से
वही तार पुराने जिंदगी के
लहराएगी खुले आसमान में
उनके ख्वाबों की पतंग फिर से..!
अनुभव के भंडार से भरे वो
बुजुर्ग हैं बोझ न समझो
जिंदगी की सीख दे जायेंगे
उन्हें गौर से सुनो और समझो..!