बंधन
बंधन
ये कैसा बंधन है
जो सिर्फ एक नाम से जुड़ा है।
ये कैसा संगम है
जो समाज के दबाव से जुड़ा है।
खुले आसमान में उड़ान की चाहत थी उसकी
अब ले रही है चार दीवारी में सिसकी।
क्यो उसके पर काटने को बेताब है हर कोई
वो देखो उसकी मासूम आँखें जाने कब से नहीं सोई।
उसकी मुस्कान पर न जाना साहब,
वो बहुत झूठी है
उसकी तो किस्मत कब से उस से रूठी है।
शादी का नाम देकर विदा उसे कर दिया
तब से उसने अब तक कितना गम है पिया।
अपनी इच्छाओं का करती है दमन
उस प्यार की मूरत को है हमारा नमन।
अपना गम भुला कर सबकी करती है सेवा
नहीं चाहती किसी से कोई मेवा।
दिल में उसके उठती है कसक
पर सबको तो सिखाना है उसको सबक।
मत दो अपनी बेटियों को ये शादी का श्राप
उड़ने दो उन्हें स्वछन्द, छोड़ने दो खुद की छाप।
ये कभी हम पे बोझ नहीं बनेगी।
हमारी रक्षा को ये ही तनेगी।
इनकी गूँज से आँगन महकता है
इनकी हँसी से जीवन चहकता है।
मत बाँधो इन्हें किसी बंधन में
जीने दो इन्हें अपने स्पंदन में।
बंधन की बेड़ी तोड़कर ये जीवन इन्हें जीने दो
इनके लफ़्ज़ों को घुटन में मत पीने दो।।