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बरखा

बरखा

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देखो तो बादल कुछ कह रहे है

भर गए है गले तक अब बह रहे है

कोई इस आहत से मुग्ध है

कोई सहमा सा है

किसी की मुस्कान लौट आई है

किसी को ये बहुत रुलाई है

किसी के घर कड़ाई चढ़ी है

किसी की रूह कांपी पड़ी है

वो आज कहाँ सिर छुपायेंगे

जब तुम्हारे अरमान बारिश से मचल जायँगे

जब वो बादल ही ये बूंदें न संजो पाया

तो तुम क्या पा जाओगे

इतना दर्द लेके कहाँ जाओगे

की कह दो अपने अरमानो से

ज्यादा न बहको

वो गरीब भी तो बैठा हैं

उसके मन की तरह महको

ओ बरखा तू जरा थम के बरस

कहीं वो मानव अन्न को जाए न तरस

तेरा आना तय है

पर किसी को इसी बात का भय है

तू आ पर खुशहाली ला

ज्यादा न बरस अब जा


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